Sant Ravidas Ji

 संत रविदास जी की महिमा - 

रविदास जी काशी में अपना पैतृक व्यवसाय करते थे। वें प्रतिदिन साधु महात्माओ का आदर सत्कार करते  और सत्संग प्रवचन के द्वारा उपदेश देते थे। और यह कहते थे की सभी मनुष्य एक ही परमात्मा की संतान है, उसकी भक्ति पर सभी का सामान अधिकार है। कर्मकाण्ड का जाल अवतारवाद और वैदिक विधि विधानों के सारे बंधन कल्पित और झूठे है।  प्राणी मात्र के कल्याण की कामना ही मनुष्य का परम धर्म है।  जो मनुष्य ऐसा जानता है की परमात्मा सृष्टि के कण कण में विधमान है , वही मनुष्य श्रेष्ट है। 


हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस

ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास

अर्थात- हीरे से बहुमूल्य हरी यानि भगवान है उसको छोड़कर अन्य चीजो की आशा करने वालों को अवश्य ही नर्क जाना पड़ता है अर्थात प्रभु की भक्ति को छोडकर इधर उधर भटकना व्यर्थ है।

उपदेश सुनने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु भक्त उनके पास आते थे। एक बार काशी नगर का एक प्रसिद्ध सेठ भी संत रविदास जी का प्रवचन सुनने के लिए आया सत्संग में बैठकर उसने मन में धारणा करी की हे गुरु रविदास जी ! यदि आपकी कृपा से मेरे घर एक पुत्र हो जाये तो में आपकी इस कुटिया के स्थान पर एक सुन्दर महल बनवाऊंगा। भक्त की सच्ची श्रद्धा देख कर भगवान की कृपा हुई। और नौ दस महीने के बाद सेठ के यहाँ पुत्र ने जन्म लिया। सेठ बहुतसा धन लेकर रविदास जी की कुटिया पर आया और विनती की 'हे प्रभु मैंने अपने मन में आपकी धारणा की थी की जो मेरे यहां पुत्र जन्म लेगा तो में आपके मंदिर और मकान स्वयं बनवाऊंगा, आप मुझे आज्ञा दीजिये'। सेठ की गहन आस्था को देखते हुए संत रविदास जी ने वो धन गरीबो में बाटने के लिए दे दिया। 

करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस

कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास

अर्थात- हमे हमेशा अपने कर्म में लगे रहना चाहिए और कभी भी कर्म बदले मिलने वाले फल की आशा भी नही छोडनी चाहिए क्योंकि कर्म करना हमारा धर्म है तो फल पाना भी हमारा सौभाग्य है।

वेदाचारी ब्राह्मण लोगो ने एक बार निश्चय किया कि जैसे भी हो संत रविदास कि शक्ति को देखा जाये।  तो उनसब ने इकट्ठे होकर रविदास जी से कहा कि 'आप ईश्वर भक्ति के अधिकारी नहीं है'। इस पर रविदास जी ने विनर्म भाव से कहा कि 'ईश्वर पर सभी का सामान अधिकार है चाहे वो कोई भी हो'। लेकिन ब्राह्मण नहीं माने और अपनी भक्ति कि शक्ति दिखाने को कहा।  राजा बीर सिंह सहित काशी नगर की जनता गंगा के किनारे एकत्र हो गयी राजा ने ब्राह्मणो और रविदास जी के सामने शर्त रखी कि 'गंगा के दूसरे किनारे पर रखी हुई देव मूर्ति जिसके बुलाने पर जल में तैरती हुई उसकी गोद में आ विराजेगी वही सच्चा संत प्रमाणित होगा और धर्म प्रचार करेगा'। ब्रह्मणो ने शर्त मान ली। और उन्होंने जनेऊ धारण कर हवन और मंत्रो का उच्चारण कर खूब पूजा पाठ किया परन्तु देवमूर्ति अपने स्थान से हिली भी नहीं तो वेदाचारी ब्राह्मण शर्मिंदे हो कर बैठ गए।  अंत में संत रविदास जी कि बारी आयी तो उन्होंने अपने एक ही आह्वान से देवमूर्ति को गंगा के दूसरे किनारे से अपने पास बुला लिया यह लीला देखकर एकत्र भीड़ ने ख़ुशी से झूमकर भगवान रविदास कि जय जयकार की। क्षत्रिय राजा बीरसिंह ने भी सिंहासन से उठकर उनका गुरुवत सम्मान किया और चरण स्पर्श किये।   

कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा

वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा

अर्थात- राम, कृष्ण, हरी, ईश्वर, करीम, राघव सब एक ही परमेश्वर के अलग अलग नाम है वेद, कुरान, पुराण आदि सभी ग्रंथो में एक ही ईश्वर का गुणगान किया गया है, और सभी ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार का पाठ सिखाते हैं।

एक बार गंगा स्नान के लिए जाते हुए एक ब्राह्मण ने रविदास जी से कहा की "भगवन चलो गंगा स्नान कर आये।" इस पर रविदास जी ने कहा में तो नित्य प्रतिदिन गंगा जी के दर्शन अपनी कठौती में करता हूँ।  लेकिन आप जा रहे है तो यह दमड़ी (चौथाई पैसा) गंगा जी को दे देना। गंगातट पर पहुंच कर ब्राह्मण ने भेट चढाने को जैसे ही हाथ उठाया तो गंगा ने साक्षात प्रकट होकर भेठ स्वीकार की साथ ही एक बहुमूल्य रत्न जटित सोने का कंगन देते हुए ब्राह्मण से कहा कि यह भेठ के बदले प्रभु रविदास को दे देना।' कंगन लेकर ब्राह्मण के मन में बेईमानी आ गयी और वह कंगन को बनिए के यहाँ बेच आया। और अपने घर जाने लगा। ब्राह्मण जो भी रास्ता अपनाता उसी पर रविदास जी बैठे मिलते। पूरी नगरी घूम लिया सभी जगह रविदास जी दिखाई देते। अंत में वह हारकर आँखे नीची कर बनिए के पास वापस कंगन लेने पंहुचा तो पता चला की बनिया वह कंगन राजा के यहाँ बेच आया। ऐसा सुन्दर कंगन देखकर रानी ऐसे ही दूसरे कंगन की मांग करने लगी। इस पर राजा ने बनिए को बुलवाया तो बनिया ब्राह्मण को लेकर राजा के पास आया। तो ब्राह्मण ने डर कर सारी कहानी कह डाली अंत में राजा रानी ब्राह्मण और बनिया सभी रविदास जी की कुटिया पर गए और चरण स्पर्श कर दूसरे कंगन की विनती की। संत रविदास जी ने अपनी कठौती में गंगा जी से आह्वान किया तो गंगा जी ने स्वयं कंगनों का एक गुच्छा बाहर निकाल कर रख दिया। रानी ने वही गंगा जी को प्रणाम कर दूसरा कंगन चुन लिया।







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