एक बार एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के लिए द्रोणाचार्य के आश्रम में आये किन्तु भील होने के कारण द्रोणाचार्य ने उन्हें अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया। इसके बाद एकलव्य ने वन में जाकर द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगे। एक दिन पाण्डव तथा कौरव गुरु द्रोणाचार्य के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा हुई। इसलिए उसने कुत्ते को चुप करने के लिए अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को कोई हानि नहीं पहुंचीं। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर चौंक गए और खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मन से गुरु मानकर एकलव्य ने खुद ही अभ्यास किया है। गुरु दक्षिणा में एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया।
एकलव्य की विचारधारा -
जैसा कि एकलव्य का चरित्र दिखाया गया है कि अगर स्वयं पर दृढ़ विश्वास और सच्ची लगन हो तो परिस्थिति कैसी भी हो अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है इसके लिए राजसी परिवार से होना जरूरी नहीं है। द्रौणाचार्य के विचित्र व्यवहार के उपरांत भी एकलव्य ने अपना शिष्य धर्म निभाते हुए अपने हाथ का अंगूठा दे दिया।
कबीरदास जी गुरु नानक जी सूरदास जी महारानी लक्ष्मी बाई एकलव्य रविदास
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